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Samrat mihir bhoj pratihar सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार परिहार पड़िहार पढ़ीहार राजपूत राजपुताना वीर योद्धा Parihar padhihar padihar Rajput rajputana veer yoddha PNG Logo hd picture By @GSmoothali गंगासिंह मूठली

राजपुताना/Rajputana

Historical Research  on the use of Word  "Rajputana " .
"राजपूताना" शब्द के प्रयोग पर ऐतिहासिक शोध ।
जिन्होंने राजपूताने की स्वाधीनता को अक्षुण्ण रखने के लिए आजन्म उधोग किया और अपनी मातृभूमि के लिए अनेक कष्टों को सहकर जिन्होंने देश में एक अपूर्व आदर्श स्थापित किया उन प्रातः स्मरणीय -वीर शिरोमणी   स्वतंत्रता के पुजारी ,क्षात्र धर्म के रक्षक महाराणा प्रताप के वीरोचित जीवन पर मुग्ध होकर उनकी उज्जवल स्म्रति में उनको नमन करते हुए राजपूत वीरों की जन्मभूमि ,कर्मभूमि ,रणभूमि एवं बलिदान भूमि के लिए प्रयुक्त शब्द "राजपूताना "पर ऐतिहासिक शोध प्रस्तुत कर  रहा हूँ ।Rajputana ("The country of the Rajputs ";also called Rajasthan ,or Rajwara , "the abode of the Princes " ) .In the administrative nomenclature of the Indian Empire ,Rajputana is the name of a great territorial circle which includes eighteen Native States and two chiefship ,together with the British District of Ajmer -Merwara .
राजपूताना भारतवर्ष के पश्चिमी भाग में एक बड़ा प्रांत है ।इस प्रांत में अधिकतर राजपूत राजा राज करते थे ।इसलिये इसका यह नाम "राजपूताना "पड़ा है ।परन्तु इसका यह नाम -करण अंग्रेंजों के समय से ही हुआ है ।क्यों कि जहाँ तक पता चलता है ,वि0 सं0 1857 (सन् 1800ई0 )में पहले पहल मिस्टर जार्ज टामस ने ही इस प्रांत के लिए इस नाम का प्रयोग किया था(विलुयम् फ्रेंकलिन,मिलिट्री मेमआर्स आफ मिस्टर जार्ज टामस प0 347 ,सन्1805ई0,लन्दन संस्करण )यह नाम इस प्रांत के लिए ठीक उसी प्रकार उपयुक्त था जिस प्रकार गोंडवाना (मध्यप्रदेश के लिए )और तिलंगाना (मद्रासके )उन प्रांतों के लिए उपयुक्त था जिनमें गोंड और तेलंग लोग बसते है ।
राजपूताने के प्रथम और प्रसिद्ध इतिहास लेखक कर्नल जेम्स टॉड ने वि0 सं0 1886 (ई0 सन् 1829 )में इस प्रांत के लिए अपने इतिहास में "राजस्थान "शब्द का ही प्रयोग किया है ।इसके भिन्न -भिन्न विभाग भिन्न -भिन्न नामों से पुकारे जाते थे ।फिर भी ऐतिहासिक महत्व के विचार से "राजपूताना "उसी प्रसिद्ध वीर भूमि का नाम  हो सकता है जिसको राजपूत जाति ने अपना निवास बना कर अपने वीरतापूर्ण कार्यों से गौर्वानिवत किया ।भारतवर्ष में फैले हुए कई राजवंश इसी स्थान से अपना उद्भव मानते है ।
यह राजपूताना वह वीरभूमि है जिसकी समानता भारतवर्ष का अन्य कोई भी स्थल नहीं कर सकता और यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि इस भूमि का सा गौरव संसार के अन्य किसी भी स्थान को प्राप्त नही हो सका है ।यधपि संसार के इतिहास में अनेक वीरों के देश प्रेम से भरे कारनामे देखने को मिलते है तथापि वे राजपूताने के वीरों और वीरांगनाओं के चरित्रों से तुलना करने पर फीके लगने लगते है ।इसी से यह स्थल भारतवासियों के लिए वास्तविक तीर्थस्थल सा है ।हमारे भारतीय नवयुवकों को भारतीय वीरता व् धर्म के प्राचीन आदर्श को जानने के लिए दूर -दूर देशों में भटकने की आवश्यकता नहीं है।राजपूताने का कौना -कौना वीरता ,देशप्रेम ,स्वाभिमान ,निर्भयता ,धर्म ,आन ,मान ,और शान पर मर मिटने के भावों से गूंज रहा है ।कौन शिक्षित मनुष्य नहीं जानता कि वीर राजपूतों ने आपत्ति पड़ने पर समय -समय पर अपने देश प्रेम के लिए रक्त की नदियां बहाई है ।उनके बलिदान और स्वतंत्रता की गाथाओं से मुर्दा दिलों में भी जोश उत्पन्न हो जाता है ।राजपूताने की वीर रमणियों ने आत्म रक्षा के लिए जौहर की आहुतियां दे कर जो अलौकिक काम किये है उनकी गौरव गाथाओं से बुजदिल की भी नसें एक बार फड़क उठाती है ।यहाँ के वीरों के कार्यों को सुनकर एक बार तो कायर के ह्रदय में भी वीरता का संचार होने लगता है ।जो लोग विदेशी वीरों के चरित्रों के गीत गाते हुए नहीं थकते और सिकंदर और नेपोलियन के कारनामों पर लट्टू है वे भी एक वार राजपूताने के वीरों के उत्साह और वीरता पर दंग रह जाते है ।इस वीर एवं गौरव भूमि की प्रशंसा करने में विदेशी विद्वान् भी नहीं अघाते ।कर्नल टॉड ने कितना अच्छा कहा है कि ----
"There is not a petty State in Rajasthan that has not had its Thermoplyae and scarcely a city that has not produced its Leonidas ."
अर्थात राजस्थान (राजपूताना )में कोई छोटा सा राज्य भी नहीं है जिसमें थर्मोपॉली (यूरोप का एक स्थान )जैसी रणभूमि न हो और शायद ही कोई ऐसा नगर मिले ,जहाँ लियोनिडास जैसा वीर पुरुष उत्पन्न न हुआ हो ।"
माहाराणा साँगा ,वीर जयमल ,रावत पत्ता ,महाराणा प्रताप ,पृथ्वीराज चौहान ,महाराजा जसवंत सिंह ,दुर्गादास राठौड़  और पदमिनी ,मीरांबाई ,पन्नाधाय ,गौरां धाय आदि देवियों की यह जन्मभूमि है ।अथवा इस राजपूताने को देश के लिए मर मिटने वालों का बलिदान -कुण्ड भी कह सकते है ।वीरो का आत्मबलिदान और वीरांगन्नाओं का जौहर का कठिन असिधारा व्रत ही राजपूताने की अमूल्य और अक्षय निधि है ।जहाँ के वीरों ने अपनी स्वतंत्रता के लिए निर्भय होकर अपने जान और माल कुर्वान किये थे और जहाँ की वीरांगनाओं ने बिना हिचकिचाहट के अपनी इज्जत बचाने के लिए अपनी और अपने बाल -बच्चों की आहुति दे डाली थी ,ऐसी इस राजपूताने की भूमि के प्रत्येक पद पर राजपूतों की गौरव गाथा भरी पडी  है और यहाँ के पत्थर और मिट्टी तक भी इन वीरों के रक्त से सींचे होने की गवाही देते है ।दुर्गराज चित्तौड़ ,कुंभलगढ़ ,जैसलमैर ,मंडोर ,सिवाना ,बयाना ,तीमन गढ़ ,रणथम्भोर ,और जालौर के दृढ दुर्गों की दीवारों से आज भी क्षत्रियों के प्रबल पराक्रम और राजपूत  वीरांगनाओं के जौहर की प्रतिध्वनि निकल रही है ।वास्तव में उन राजपूत ललनाओं के साहस की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी थोड़ी है ;जिन्होंने आन के लिए ही अपने पति ,पुत्रों ,और कुटुमियों को रणक्षेत्र। में भेज कर उनके पीछे की चिंता को दूर करने के लिए अपने हाथ से ही अपने सर तक काट डाले थे ।बीरबाला का  ,मोह को त्याग कर रणक्षेत्र को विदा करते हुए अपने पति के हाथ में बड़े उत्साह से रण -कंकण बाँधने का द्रश्य आज तक भी कवियों की कविता में और भाट -चारणों के मुख से वर्णन किया जाता है :---
कंकण बंधन रण चढ़न पुत्र बधाई चाव ।
तीन दिहाडा त्याग रा कांई रंक कांई राव ।।
ये ही रमणियाँ अपने कुटुम्बियों के केसरिया वस्त्र पहन युद्ध में वीर गति प्राप्त कर लेने पर दहकती हुई चिताओं में अपने कोमल शरीरों की आहुति दे ड़ाल ती थी ।यही नहीं ,बल्कि बहुत -सी देवियों ने समय आने पर रणचंडी का रूप धर अपने खड्ग से शत्रुदल को घास की तरह काटकर अंत में आत्मबलिदान किया था ।इसी से आज भी यह भूमि उस द्र्श्य की याद दिलाती है जबकि भीषण युद्ध में राजपूत लोग अपने शत्रुओं के मुंडों को गेंद की तरह उछाल कर अंत में स्वयं भी महानिद्रा में शयन करते थे ।इन्ही ऐतिहासिक घटनाओं को देखने से हल्दीघाटी प्रताप के अद्भुत साहस ,राठौड़ जयमल और सिसोदिया पत्ता के जाति -प्रेम ,सवाई जय सिंह के युद्धकौशल ,महाराजा जसवंतसिंह के अदम्य उत्साह ,राठौड़ दुर्गादास के देश प्रेम और वीर सतियों के जौहर के चित्र मानसिक पटल पर खिंच जाते है और साथ ही सहसा मुंह से यह शब्द निकल पड़ते है कि राजपूताना !तू धन्य है ;राजपूत जाति तेरी कीर्ति अटल है और वीर क्षत्राणियों !तुम्हारा दूध उज्जवल है ।
   इन्हीं सब अपूर्व और महत्व का चिरस्मरणीय घटना -स्थल है ।यह भूमि भारत की नाक है ।यही भारतवर्ष का प्राण है ।यधपि राजपूताने का सिंह आज सोया हुआ है और राजपूत जाति अविद्या ,व् मदिरा रूपी शत्रुओं से घिरी हुई है तथापि इसके पूर्व चरित्रों को देखते हुए भारत का कौन ऐसा पुरुष होगा जिसके ह्रदय में यहाँ पर घटनाओं का स्मरण कर देशभक्ति व् स्वाभिमान का भाव नहीं पैदा होगा ।इस समय की टूटी -फूटी दशा में भी यही एक स्थल है जहाँ पर प्राचीन आर्य सभ्यता ,राजनीति और क्षत्रियो की प्राचीन विभूतियों के दर्शन हो सकते है ।इस पवित्र धरती का स्मरण करने से श्र्द्धा से सिर झुक जाता है ।यहां के इतिहास के पन्ने उलटते ही मुर्दा  दिल में भी जोश आ जाता है और कायर पुरुषों तक की भुजाऐ फड़कने लगती है ।ऐसे गौरवशाली राजपूताना प्रांत का प्राचीन इतिहास जानने की किसकी इच्छा न होगी ।राजपुताना ही भारतवर्ष के तुमुल संघर्ष का केंद्र -स्थल बन गया था ।भारतीय इतिहास में राजपूत -काल वीरत्व का युग था।यह काल हमारे नेत्रों के सामने उन परम प्रसिद्ध अदभुत कर्मा महान आत्माओं की उज्जवल चित्रावली उपस्थित करता है जो वीरत्व के उन सभी आदरणीय गुणों से अलंकृत थे जिनमें शौर्य ,देश -भक्ति ,आत्मत्याग ,राजभक्ति ,साहस तथा नेतृत्व का समावेश है और जो सदा ही मानव -ह्रदय में उच्च आदर्श की कल्पना जाग्रत करते है ।वीर भूमि राजपूताने के इन वीरों और वीरांगनाओं के गौरवपूर्ण उज्जवल विचार एवं कार्य -कलाप मानवजाति के ह्रदय को भविष्य में भी सदा स्फूर्ति तथा उत्साह प्रदान करते रहेंगे ।
इस राजपूताना प्रांत में 21 राज्य  थे,2 जागीरें और बीचों -बीच में एक छोटा -सा हिस्सा अँग्रेजी इलाके का था जो "अजमेर मेरवाड़ा "के नाम से पुकारा जाता था ।21 राज्यों  जिनमे उदयपुर ,डूंगरपुर ,बांसवाड़ा ,प्रतापगढ़ ,और शाहपुरा --गहलोतों (सिसोदिया )राजपूतों के ,बूंदी ,कोटा और सिरोही --चौहानों के ;करौली और जैसलमेर यादवों (जादौन व् भाटी )के ,जयपुर व् अलवर कछवाहों के ;जोधपुर ,बीकानेर और किशनगढ़ राठौड़ राजवंश के ;झालावाड़ ,झाला राजपूतों का ;दांता परमारोंका ;भरत पुर और धौलपुर जाट नरेशों के ;और टोंक तथा पालनपुर मुसलमान राजघराने के अधिकार में थे ।7वीं से 11 वीं शताब्दी तक राजपूत जाति के कई वंश प्रसिद्धि में आये ,जिन्होंने अपने बाहुबल से यहाँ छोटे -छोटे राज्य कायम किये ।ये गहलोत (वि0 सं0 625 या 646 =ई0 सन् 568 ); ये गुजरात से माइग्रेट होकर मेवाड़ के दक्षिण -पश्चिम भाग में बसे ;इसके कुछ वर्षों बाद पड़िहार  या परिहार आये जिन्होंने जोधपुर में मंडोर पर राज किया ।इसके बाद ,चौहान और भाटी (7वीं  व् 8वीं शताब्दी )  सांभर और जैसलमेर  में स्थापित हुए  ;अंत में ;परमार ,सोलंकी (10वीं शताव्दी ), में राजपुताना के दक्षिण -पश्चिम में ताकतवर हुए ।,यादव (जादौन ), 11 वीं शताब्दी में करौली  पर अधिकार किया जो आस -पास के क्षेत्र में बहुत लम्बे समय से रहते थे ।कछवाहा लगभग 1128ई0 में ग्वालियर से जयपुर में आये  और राठौड़  13 वी शताब्दी की शुरुआत में कन्नौज से मारवाड़ में आकर स्थापित हुये ,।10 वीं शताब्दी में मुसलमानों के आक्रमण के समय इन्हीं राजपूत राजवंशों के राज्य राजपूताने में फैले हुए थे ।इस प्रकार लेखक ने राजपूताने के विषय में संक्षिप्त जानकारी देने का प्रयास किया है ।यदि लेख को लिखने में भुलवस कोई गलत तथ्य लिख गया हो  तो उस के लिए लेखक क्षमाप्रार्थी   है ।
जय हिन्द।
जय राजपूताना ।

श्रोत --राजपूताने का इतिहास द्वारा जगदीश सिंह गहलोत एवं अन्य  लेखकों द्वारा लिखे गए राजपूत ऐतिहासिक ग्रन्थ ।

लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव -लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।

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