****रामपुरा के चंद्रावत****
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सिसोदे के राणा वंश में भीमसिंह हुए,जिनके एक पुत्र चन्द्रसिंह(चंद्रा) के वंशज चंद्रावत कहलाये। चन्द्रा को आन्तरि परगना जागीर में मिला था। उसके पीछे सज्जनसिंह,कांकनसिंह एयर भाखरसिंह हुए। भाखरसिंह की उसके काका छाजूसिंह से तकरार हुई,जिससे वह आंतरी छोड़कर मिलसिया खेडी के पास जा रहा। उसका बेटा शिवसिंह बड़ा वीर और हट्टा कट्टा था। मांडू के सुलतान हुशंग गोरी ने दिल्ली की एक शहजादी से विवाह किया था। हुशंग के आदमी उस बेगम को लेकर मांडू जा रहे थे ऐसे में आन्तरि के पास नदी पार करते हुए बेगम की नाव टूट गई उस समय शिवा ने,जो वहा शिकार खेल रहा था,अपनी जान झोंककर बेगम के प्राण बचाए। इसके उपलक्ष्य में बेगम ने होशंग से शिवा को 'राव' का खिताब और १४०० गाँव सहित आमद का परगना जागीर में दिलाया। उसके पीछे रायमल वहा का स्वामी हुआ। महाराणा कुंभा ने उसे अपने अधीन किया।
उसका पुत्र अचलदास हुआ और उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र(प्रतापसिंह का पुत्र)दुर्गभान हुआ। उसने रामपुरा शहर बसाया और उसको संपन्न बनाया। अकबर ने चित्तोड़ घेरा तब उसकी मंशा रही की राणाजी का बल तोड़ने के लिए उनके अधीन बड़े बड़े सरदारों को अपने अधीन कर लेना चाहिए। इसी उद्देश्य से उसने आसफ़खान को फ़ौज देकर रामपुरे पर भेजा। उसने शहर को बर्बाद किया,जिसपर दुर्गभान को मेवाड़ की सेवा छोड़कर मुग़ल अधीन होना पड़ा। दुर्ग्भान को अकबर ने उसके ख़ास अमीरों में रखा।१५८१ में मिर्जा मुहम्मद हकीम पर चढ़ाई हुई उस समय वह मूराद के साथ भेजा गया। दो वर्ष बाद गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए वह गुजरात गया और दक्षिण की लड़ाईयो में भी शामिल रहा।
१५९१ में जब मालवे का सूबा मुराद को सुपुर्द हुआ उस समय वह उसके साथ रहा।१६०० में शेख अबुलफजल के साथ वह नासिक में नियुक्त हुआ,जहा से छुट्टी लेकर वह रामपुरे गया।४० से अधिक वर्ष मुग़ल सेवा करने के बाद ८२ वर्ष की आयु में जहाँगीर के समय १६०७ में उसकी मृत्यु हुई। उसकी वीरता के कारण उसका मंसब ४००० तक पहुँच हया था।
राव दुर्गभान का बेटा चंद्रसिंह द्वितीय उसका उत्तराधिकारी हुआ। उसको प्रारम्भ में ७०० का मनसब मिला,जो बाद में बढ़ता गया। जहांगीर की उसने बहुत कुछ सेवा की। उसके तीन पुत्र-दुदा,हरिसिंह और रणछोड़दास हुए। उसका ज्येष्ठ पुत्र दुदा उसका उत्तराधिकारी हुआ। वह शाजहान के समय आजमखान के साथ खानजहा लोदी पर भेजा गया और उसका मनसब २००० जात और १५०० सवार का हुआ। उसके बाद वह यामिनुद्दौला आसिफखान के साथ आदिल्खान पर भेजा गया।१६९० में दौलताबाद के किले पर लड़ाई हुई उस समय दुदा ने जिसके कई कुटुम्बी मारे गए थे उनकी लाशें उठाने की इजाजत मांगी। उसकी आज्ञा न मिलने पर भी वह लाशें उठाने लगा,इतने में शत्रुओ ने उसे घेर लिया तो उसी वक़्त वह अपने साथियो सहित घोड़े से उतर गया और तलवार लेके लेकर शत्रुओ पर टूट पड़ा तथा वीरता से लढता हुआ मारा गया।
उसकी इस वीरता से प्रसन्न होकर शाहजहान ने उसके बड़े बड़े बेटे हठीसिंह को खिलअत ,१५०० जात और १००० सवार का मनसब एवं राव का खिताब प्रदान किया।फिर वह खानेजहा के साथ दक्षिण की लढाई में शरीक हुआ,पर कुछ दिनों नाद मारा गया।
हठीसिंह के निस्संतान होने के कारण राव चन्द्रभान के बेटे रणछोड़दास का बेटा रूपसिंह उसका क्रमानूयाई हुआ।१२ मई १६४४ को वह मुग़ल सेवा में उपस्थित हुआ तब तत्कालीन बादशाह ने उसको राव का खिताब और ९०० जात तथा ९०० सवार का मनसब बना दिया। तत्पश्चात वह मुराद के साथ शामिल होकर बलख की लड़ाई में शामिल होकर फौज के हरावल में रहा,जिससे उसका मनसब १५०० जात और १००० सवार हो गया।उसने औरंगजेब के साथ रहकर उजबेको की लडाई में बड़ी वीरता दिखाई।वह औरंगजेब के साथ कंधार भी भेजा गया,जहा कजलबाशो की साथ की लड़ाई में वह हरावल में रहा और उसने बड़ी वीरता दिखाई,जिससे उसका मनसब २००० जात और १२०० सवार हो गया।१६५० में उसका देहांत हुआ। उसके संतान न होने के कारण राव चंदा के बेटे हरीसिंह का पुत्र अमरसिंह उसका उत्तराधिकारी हुआ,जिसको शाहजहान ने १००० जात और ९०० सवार का मनसब,राव का ख़िताब तथा चांदी के सामन के साथ एक घोडा दिया। वह पहले औरंगजेब के साथ और बाद में दारा शिकोह के साथ कंधार की चढाई में रहा,जहा वीरता बतलाने के कारण उसका मनसब १५०० जात और १००० सवार का हो गया।१६५८ में वह महाराजा जसवंतसिंह के साथ औरंगजेब और मुराद से लड़ने के लिए मालवे की तरफ भेजा गया और लढाई के समय वह सेना के हरावल में रहा,परन्तु जसवंतसिंह के हारने पर रामपुरे वापस चला गया। जब औरंगजेब गद्दी पर बैठा तब वह उसके पास हाजिर हुआ। फिर वह राजा जयसिंह कच्छवाह के साथ दक्षिण में नियत हुआ,जहां १६६८ में साल्हेर(बागलान) के किले के नीचे लढ़ता हुआ मार गया और उसका बेटा मोहकमसिंह,जो साथ था,उसी लढाई में कैद हुआ। कुछ दिन बाद वह निजाम बहादुरशाह कोका के सेवा में हाजिर हो गया और मनसब व राव का खिताब पाया। वह राजपूताने में बड़ा प्रसिद्द और उदार राजा गिना गया।
उसके पीछे उसका पुत्र गोपालसिंह उसका उत्तराधिकारी हुआ।१६८३ में वह औरंगजेब की सेवा में उपस्थित हुआ। उसका बेटा रतनसिंह,जो रामपुरे में था,अपने बाप से विरुद्ध होकर रामपुरे का स्वामी बन बैठा और वहा की आमदनी को अपने बाप के पास भेजना बंद कर दिया। इसपर गोपालसिंह ने औरंगजेब से उसकी शिकायत की तो उसने औरंगजेब से बचने के लिए १६९८ में मालवे के सूबेदार मुख़्तारखान के द्वारा मुसलमान होकर अपना नाम इस्लामखान और रामपुरे का नाम इस्लामपुर रखा। इसपर औरंगजेब उसका तरफदार हो गया और उसे रामपुरे का स्वामी स्वीकार लार लिया। उसके मुसलमान होने पर उसके फ़ो बेटे बदनसिंह अउर संग्राम सिंह गोपालसिंह के पास चले गए। जब गोपाल को अपना राज्य पीछा पाने की उम्मीद न रही तो वह बेदारवक़्त के पास से मागलार महाराणा अमरसिंह द्वितीय की शरण में जा रहा और मुग़लिया इलाको में लूटमार करने लगा। महाराणा के इशारे पर मलका बाजना के जागीरदार उदयभान शक्तावत ने उसकी सहायता की।
रतनसिंह केवल रामपुरे से संतुष्ट न हुआ,किन्तु उसने उधर के दुसरे मुघलिया इलाको और उज्जैन पर भी अधिकार कर लिया। जब अमानतखान ने उससे उज्जैन आदि छुडाना चाहा तब वह लढ़ने के लिए तैयार हो गया और ३०-४० हजार सेना लेकर सारंगपुर के पास उससे लढ़ा और काम आया। यह अवसर पाकर गोपालसिंह ने रामपुरे पर अपना अधिकार कर लिया,परन्तु वृद्धावस्था के कारण उससे वहा का प्रबंध ठीक होता न देखकर महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने अपने प्रधान कायस्थ बिहारीदास को फरुक्खसियार के पास भेजकर रामपुरा अपने नाम लिखा लिया और उदयपुर से सेना भेजकर उसे अपने अधिकार में कर लिया तथा राव गोपालसिंह को एक परगना देकर अपना सरदार बनाया।
गोपालसिंह के पीछे उसका बड़ा पोता बदनसिंह जागीर का स्वामी हुआ और महाराणा की सेवा में रहा। उसके पुत्र न होने के कारण उसके भाई संग्रामसिंह को वह कागिर मिली। फिर महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने यह परगना अपने भानेज माधवसिंह को अन्य सरदारो के समान सेवा करने की शर्त पर दे दिया।
महाराजा जयसिंह की मृत्यु के पीछे जयपुर की गद्दी के लिए ईश्वरसिंह और माधवसिंह के बीच झगडा हुआ। ईश्वरसिंह ने उसके मंत्री केशाव्दासको उसके शत्रुओ की बहकावट में आकर विष प्रयोग द्वारा मरवा डाला। यह समाचार पाकर होलकर,जो केशवदास का सहांयक था,सेना लेकर जयपुर पर चढ़ आया। ईश्वरसिंह ने उसे रोकना चाहा,किन्तु उसके मंत्री केशवदास को उसके शत्रुओ की बहकावट में आकर जिस प्रयोग द्वारा मरवा डाला। यह समाचार पाकर होलकर,जो केशवदास का सहायक था,सेना लेकर जयपुर पर चढ आया।ईश्वरसिंह ने उसे रोकना चाहा,पर उसके मंत्री हरगोविंद नाटाणी ने,जो अपनी पुत्री के साथ महाराजा के अनुचित सम्बन्ध से नाराज था,जयपुर की सेना को तैयार न किया,जिससे होलकर से लढ़ने में अपने को असमर्थ देखकर ईश्वरसिंह ने आत्महत्या कर ली। होलकर ने जयपुर पर अपना अधिकार कर लिया अहर माधवसिंह वहां का राजा हुआ। रामपुरे का परगना,जो महाराणा ने माधवसिंह को सेवा की शर्त पर दिया था उसने फौजखर्च में होलकर को दे दिया। तब से रामपुरे के चंद्रावत होलकर के अधिन हुए।
संग्रामसिंह के बाद लक्ष्मणसिंह,भवानीसिंह,मोकमसिंह द्वितीय,नाहरसिंह,तेजसिंह,किशोरसिंह और खुमाणसिंह हुए। जब से ये परगणा होलकर के अधीन हुआ तब सइ चंद्रावत अपने भूमी(रामपुरे) को प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहे। अंत में तुकोजी होलकर ने रामपुरा १००००रुपये वार्षिक आय के गाँवों सहीत उन्हें दे दिया,जो अब तक उनके अधीन है।
-श्रीयुत परम आदरणीय रायबहादुर साहित्य वचस्पति गौरीशंकर हिराचंद ओझा जी की कलम से
साभार विश्वजीत सिंह सिसोदिया
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