मार्गदर्शकों का मार्गदर्शन स्वीकार नहीं करना : श्री देवीसिंह, महार
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व्यक्ति की सम्पूर्ण शक्तियों पर उसका स्वयं का प्रभुत्व होता है । उसके विकास के सम्पूर्ण साधन व आवश्यक गुण-धर्म उसके अन्दर विद्यमान होते हैं, इसके बावजूद वह अपनी प्रत्येक विफलता के लिए दूसरों को दोषी ठहराने का अभ्यस्त हो गया है ।
हमारे समाज के पतन काल के बहुत पिछले भाग को छोड़ भी दें, जिसमें बुद्ध व महावीर आदि हुए, तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि समाज के लिए मार्गदर्शकों का अभाव रहा है।
पिछले एक हजार वर्षों में देश के प्रत्येक भाग में ऐसे अनेक क्षत्रिय तपस्वी हुए जिन्होंने अपनी वाणियों व विचार आन्दोलनों द्वारा समाज को भविष्य का संकेत देने व पूर्वाग्रहों से मुक्त करने कि चेष्टा की ।
लेकिन हमने इनकी और कभी ध्यान नहीं दिया तथा अपने पूर्वाग्रहों व दुराग्रहों से पीड़ित रहने के कारण, इनके मार्गदर्शन को स्वीकार नहीं कर सके।
देश पर मुसलामानों के आक्रमण के आरम्भ काल में संत रामदेव हुए जिन्होंने समझाने की चेष्टा की कि हरिजनों को नजदीक लेने व उनको समाज का अभिन्न अंग बनाने की आवश्यकता है,
लेकिन हमारे समाज ने उनका मार्गदर्शन स्वीकार नहीं किया। हरिजन आज भी गीत गाते है - ‘तंवरा की बोली प्यारी लागै सा’ लेकिन रामदेव जी के वंशजों को हरिजनों की बोली कटु लगती रही।
परिणाम यह हुआ कि हरिजनों को गले लगा कर महात्मा गाँधी राष्ट्र पिता बन गए व हरिजनों से नफरत करने वाले स्वयं अपनी ही नफरत से आज भी तड़प रहे है।
इसी परम्परा में ‘रूपादे’ व ‘मल्लिनाथजी’ ने भी हरिजनों द्वारा विचार श्रंखला को आगे बढाने का प्रयत्न किया,
लेकिन इनके उपासक केवल हरिजन ही रह गए । रूपादे के भजनों का कहीं संग्रह मिल सकता है क्या ?
यह प्रश्न मल्लिनाथजी के वंशजों से पूछे जाने पर उत्तर मिला ‘उनके भजन तो हरिजन गाते हैं।’ जिस समाज में संतों व भविष्य द्रष्टाओं के बारे में यह द्रष्टिकोण हो, उसका मार्ग दर्शन कौन कर सकता है ?
कार्ल मार्क्स के समकालीन सिरोही में संत अनोपदासजी हुए,
जिन्होंने कहा कि समाज में व्याप्त समस्त बुराइयों का उदय पूंजीपति (बनिये) के यहाँ से होता है,
अतः पूंजीपतियों का सामजिक बहिष्कार करो, जिससे समस्त बुराइयां स्वतः ही समाप्त हो जायेगी । हमने उनकी बात भी नहीं सुनी।
परिणाम यह हुआ कि पूंजीपतियों ने बुद्धिजीवियों के साथ गठजोड़ कर समस्त राजतंत्र पर अपना आधिपत्य जमा लिया ।
जिस समय निकृष्ट पंडावादी लोगों के तांत्रिक आघातों से समाज पूरी तरह से पीड़ित था।
महान संत मुच्छंदरनाथ व गोरखनाथ का उदय हुआ । जिन्होंने सात्विक साधना के द्वारा जनता को तांत्रिकों के अत्याचारों से मुक्त किया व उनमें नया आत्म विश्वास पैदा किया।
ब्राह्मणों का सर्वांगीण पतन हो जाने के कारण शास्त्रों में वर्णित ब्राह्मणों की महिमा के स्थान पर उन्होंने संतों की महिमा प्रतिपादित की व सत्संग को ही कल्याण का मार्ग बताया । गरीब जनता ने इन संतों को ह्रदय से लगा लिया।
इनका अनुसरण गुरुनानक देव, कबीरदास, दादूदयाल आदि सैकड़ों संतों ने किया व अपनी वाणियों से देश की जनता में एक आध्यात्मिक शक्ति पैदा की ।
लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि क्षत्रिय समाज के बहुत कम लोगों ने इनका अनुसरण किया व जिन लोगों ने अनुसरण किया वे भी अपने आपको पुराणवादी कुसंस्कारों से मुक्त नहीं कर सके।
आधुनिक काल में भी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, अरविन्द, महर्षि रमण व सांईबाबा जैसे सैकड़ों प्रगट व कितने ही गुप्त संत हुए।
लेकिन हमने उनका आशीर्वाद व उनसे मार्गदर्शन लेने कि कोई चेष्टा नहीं की।
हमने कभी यह देखने की चेष्टा नहीं की कि कठिन समय व कठिन परिस्थितियों में हमारा साथ किसने दिया ?
जो व्यक्ति या समाज अपने हितचिंतकों के प्रति कृतज्ञ नहीं हो सकता उसका विनाश अवश्यम्भावी है ।
पिछले एक हजार वर्षों तक, हमारा समाज निरंतर मुसलामानों के आक्रमणों के विरुद्ध लड़ता रहा है ।
क्या ऐसा कहीं प्रमाण मिलता है कि एक भी बनिए अथवा ब्राह्मण ने अपना बलिदान दिया हो?
आज हम जिनको आदिवासी कहते है उन भील व मीणों ने तथा हरिजनों ने हमेशा उस कठिन परिस्थिति में, जब कदम कदम पर हमें तलवार का सामना करना पड़ा पड़ रहा था, हमारा साथ दिया । लेकिन इस स्वामिभक्ति व देशभक्ति का उन्हें क्या बदला चुकाया गया ?
हम पंडो व पूंजीपतियों के हाथ के खिलोनें बन गए । गरीब किसान व हरिजन वर्ग का शोषण कर, स्वर्ग में जाने के लिए मंदिरों के दरवाजों पर थैलियाँ भेंट की गई ।
बोहरों को गरीबों को लूटकर धन संग्रह करने की खुली छुट दे दी गई जिसका परिणाम वही निकला जो निकलना चाहिए था।
हमें कुमार्गगामी बनाकर, हमारे से ही उत्पीड़न कराकर, जनता से हमारे विरुद्ध बगावत का झंडा खड़ा करवाया गया, लेकिन तब तक हम पूरी तरह शक्तिहीन व विवेकहीन हो चुके थे।
अतः परिणाम निकला, ‘स्वेच्छापूर्वक अपनी मृत्यु को, हर्ष प्रगट करते हुए मजबूरी के साथ स्वीकार करना।’
भील जाति के ऋषि श्रेष्ठ बाल्मीकि के आश्रम में 10 वर्ष तक राम, लक्ष्मण व सीता रहे। कम से कम 16 वर्ष तक सीताजी व लवकुश रहे।
नर्बदा नदी के तट पर भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए माँ पार्वती ने जब कठोर तपस्या की, तब उन्होंने भी भीलों की सेवा स्वीकार की, जिसके कारण भीलों को आज भी ‘मामा’ कहते है ।
उन भील व मीणों को इन बुद्धिजीवियों के षड्यंत्र में फंसकर हमसे पृथक कर दिया, जिससे हम तो शक्तिहीन हुए ही,
ये जातियां भी समाज से अलगाव के कारण निरंतर पिछड़ती गई व आज उनमें हमारे प्रति शत्रुता का भाव मौजूद है।
संत मल्लुकदास जिन्होंने पंडावादी क्रियाकलापों से मुक्त होकर अपने आप द्वारा मार्ग दर्शन प्राप्त करने की चेष्टा करने को कहा ।
मीरां जिन्होंने घृणा को त्याग कर व विद्वेष छोड़कर, प्रेम में लीन होने की प्रेरणा दी। दादु के शिष्य सुन्दरदास जिन्होंने आत्म चिंतन व स्वयं के मन के शुद्धिकरण का महत्व बताया।
उनकी व उन जैसे अनेक अन्य संतों की, हमनंे एक नहीं सुनी। अपने आपको बदलने के बजाय हम हठधर्मी बने रहे व दुराग्रहों पर अड़े रहे, जिसके परिणाम स्वरूप पूर्ण परभाव से साक्षात्कार करना पड़ा।
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